तुमसे जाना है सादगी को हसीं
तुमसे करता हँशायरी को हसीं
इससे सबको बहुत ज़शकायत है
क्यों ज़लखेकोई ज़जिंदगी को हसीं
मुफ्लीसों के लह से अहल ए करम
कर रहें हैं अब इस सदी को हसीं
हम हैं शम्म ए अदब तो क्यों माने
अपनी बस अपनी रोशनी को हसीं
राहे इंसावनयत पे चल कर हम
आओ करते हैं बंदगी को हसीं
क्या येमुमककन हैआज दुवनया में
आदमी कह दे आदमी को हसीं
कैसी तारी है बेबसी सबक़त
ज़लखना पड़ता है खामोशी को हसीं
By – अज़हर हाशमी बक़त