पाषाणी
जब मैंने महावर रचे पाँवों से
लाँघी थी तुम्हारे घर की चौखट…
बनकर लक्ष्मी तुम्हारे घर की,
तब मेरे भाग्य ने ली थी करवट !
“कितना ज़ोर से हँसती हो ?”
कहकर तुमने रख दिया था
इक छोटा सा पत्थर…
मैंने उसे सहेज लिया था,
अपने नाज़ुक से होंठों पर…
ताकि क़ैद कर सकूँ अपनी,
खिलखिलाती हँसी !
“क्यों परपुरुष से बातें करती हो ?”
कहकर तुमने रख दिया था…
फिर एक शायद थोड़ा बड़ा सा पत्थर…
मैंने उसे सहेज लिया था…
अपने उन्मुक्त कंठ पर,
ताकि क़ैद कर सकूँ अपनी…
बेबाक बेपरवाह वाणी !
“क्यों बिना अनुमति दूसरों से मिलती हो ?”
कहकर तुमने रख दिया था…
बड़ा सा इक पत्थर !
और मैंने उसे सहेज लिया था.
अपने घुमक्कड़ पाँवों पर…
ताकि मैं पहना सकूँ बेड़ियाँ,
अपने स्वतंत्र पाँवों को !
तुम अनगिनत बातें कहते रहे…
मैं अनगिनत पत्थर रखती रही
तुम्हें हर पल जीतने के प्रयास में,
मैं हर पल हारती रही…
अपने अस्तित्व को सदा पत्थरों के नीचे
कुचलती और रौंदती रही !
मैं अब मैं नहीं, पाषाण की मूरत हूँ,
तुमसे होकर जुदा अपनी सी सूरत हूँ !
अस्तित्व की जंग जीतने को…
लाँघी है फिर से तुम्हारी चौखट !
अब लक्ष्मी नहीं, दुर्गा हूँ, शक्ति हूँ !
पाषाणी बन समाज में स्थान बनाऊँगी…
रख सकूँ कभी तुम पर भी पत्थर..
भविष्य में ही सही, ऐसा संसार बनाऊँगी !
अंशु श्री सक्सेना
मौलिक/स्वरचित