सृष्टि रिन के उस बार को बस घूरे जा रही थी। उफ़्फ़, आज 20 तारीख़ ही है, और लगभग पूरा ख़त्म हो गया। अब संजय ड्यूटी से लौट कर फिर से गुस्सा करेंगे। कहेंगे कि एक रिन पूरा महीना चलता है। तुमने 20 दिन में ही ख़त्म कर दिया?
सृष्टि घर के दूसरे कामों को ख़त्म करने में लगी ही हुई थी कि अचानक बाहर मच रहे शोर ने उसका ध्यान भंग किया।
ये कैसा शोर है? ज़रा देखूँ तो? कह कर जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला तो देखा सामने 2 मोटरसाइकिल आपस में टकरा के गिरे पड़े हैं, और दोनों को उसी अवस्था में फेंक कर उनके मालिक आपस में दंगल करने के मूड में नज़र आ रहे हैं।
कैसे लोग हैं? उफ़्फ़! काम काज नहीं बस ज़रा सा कुछ हुआ नहीं कि लग पड़े लड़ने। ये बोल कर जैसे ही वो खिड़की बंद करने के लिए हाथ बढ़ाती है, उसकी नज़र उन दो नौजवानों से एक पर पड़ती है, और जैसे ठहर जाती है।
6 फुट लंबा, चौड़ी छाती, बिल्कुल बलिष्ठ, घुँघराले बाल और भूरी आँखें। ऐसे नौजवान के ऊपर तो आस पास की हर औरत मरती होगी। वो बड़े गौर से उस नौजवान को देखे जा रही थी, शायद दिल के कुछ अरमान दबे पाँव बाहर आ रहे थे।
तभी उसी नौजवान की नज़र भी सृष्टि पर पड़ी। और अचानक ही पूरा समा बदल गया। उस नौजवान ने ख़ुद उस दूसरे मोटरसाइकिल वाले से माफ़ी माँगी, और मोटरसाइकिल को उठा कर पैदल चलते हुए, उसकी तरफ़ आने लगा। सृष्टि सहम गयी। ये क्या? ये मेरी तरफ़ क्यों आ रहा है? आख़िर क्या चाहता है?
वो नौजवान उसकी खिड़की तक आया और मोटरसाइकिल को स्टैंड पर डालने लगा। उसने बड़े गौर से सृष्टि को एक बार फिर देखा। सुंदर सुडौल काया, और झील सी नीली आँखें। जैसे कोई स्वर्ग की अप्सरा उतर आई हो। सृष्टि भी एक टक उसे देख रही थी। दोनों के पास कुछ कहने को नहीं था शायद।
चुप्पी को तोड़ते हुए, उस नौजवान ने कहा – जी नमस्ते। मेरा नाम दीपक है। अभी अभी मेरी मोटरसाइकिल की टक्कर हो गयी और मेरा मोबाइल भी टूट गया। अगर आप बुरा ना माने तो क्या मैं आपका फ़ोन इस्तेमाल कर सकता हूँ? मैकेनिक को बुलाने के लिए?
सृष्टि ने सहमे हाथों से उसे कॉर्डलेस पकड़ाया। वो अभी तक इसी उधेड़बुन में थी कि ये मुसीबत अचानक से कहाँ उसके सर पे आ गई। वो ना ही उसे मना कर पा रही थी और ना ही……..
जी सुनिए। शुक्रिया….. बात हो गयी…. कहते हुए उसने कॉर्डलेस वापस पकड़ाया।
श्रावण के महीने में बिन बादल बरसात कब शुरू हो जाए, कुछ पता नही। अचानक ही बूँदों ने खुले आसमान को ढकना शुरू कर दिया।
दीपक ने वापस घर की तरफ़ मुड़ते हुए कहा – जी लगता है, बहुत ज़ोरों की बारिश होने वाली है। अगर आप बुरा ना माने, तो क्या मैं अंदर…??
सृष्टि सकते में आ गई। ऐसे कैसे उसे अंदर बुला लूँ…. पर… चाहती तो मैं भी हूँ कि वो अंदर आये।
सृष्टि ने उसे गेट की तरफ़ इशारा किया और अंदर आने को कहा।
अगले ही पल दीपक सृष्टि के घर में उसके सामने बैठा हुआ था।
सृष्टि ने उससे निगाहें चुराते हुए कहा – जी आप चाय पियेंगे?
दीपक को जैसे इसी सवाल का इंतज़ार था, तपाक से उसने उत्तर दिया – जी ज़रूर।
सृष्टि चाय बना कर लायी तो देखा, दीपक उसके शादी वाली फ़ोटो को बड़े ग़ौर से देख रहा था।
“ये हमारे शादी की पहली सालगिरह की फ़ोटो है”, चाय का कप दीपक की ओर बढ़ाते हुए सृष्टि ने कहा।
“ओह! मुझे लगा…..”
“हाँ, लगभग सभी ऐसे ही समझते हैं, की शायद ये हमारे शादी की तस्वीर होगी। मगर शादी में तो…..”
“जी शादी में क्या?” दीपक ने बड़ी उत्सुकतापूर्वक प्रश्न किया।
सृष्टि झेंप गयी। उसने बड़ी …….. निगाहों से दीपक को देखा।
दीपक को एहसास हुआ कि अनजाने में वह एक व्यक्तिगत बात को बहुत casually पूछ बैठा था।
“मुझे माफ़ कीजियेगा। मेरा वो मतलब नहीं था। मैं तो बस……”
“ज़रूरी नहीं इंसान जो चाहे उसे मिल ही जाए दीपक बाबू। और हम तो औरत हैं, हमारी सुनता ही कौन है?” सृष्टि ने ठंडी आह भरते हुए कहा।
“तो क्या आप इस शादी से….”
“नहीं नहीं, ऐसी बात नहीं। संजय मुझे बहुत चाहते हैं।”
“जानकर खुशी हुई। किसी को तो अपने हिस्से की खुशियाँ मिली”….. संजय ने चाय का कप रखते हुए कहा।
“मतलब? आपने शादी नहीं की?”
“नहीं, समाज की मजबूरियाँ मर्दों को उतना मजबूर नहीं करती ना? इसलिए। मेरी मर्ज़ी और ज़िद के आगे घरवालों की नहीं चलती।”
“किस्मत भी कितनी अजीब है। जिससे प्यार होता है, वो नहीं मिलता। बस…. उसकी दी हुई वो पहली चिट्ठी रह जाती है आपके पास, जिसे दे कर उसने आपसे अपने दिल की सारी बातें कही थी।”
दीपक फिर से व्यक्तिगत प्रश्न करने से थोड़ा झिझकता है, पर कौतुहलता हावी थी उस पर, “तो क्या वो चिट्ठी अब भी आपके पास है?”
“हाँ, वो चिट्ठी ही तो है, जो उसको मेरा अपना बना देती है। जब कभी उदास हो जाती हूँ, उस चिट्ठी को गले लगा लेती हूँ। ऐसा लगता है, जैसे कि वो मेरे पास ही है।”
दीपक अपना बटुआ निकालता है, उसे धीरे से खोलता है, उसके बटुए में उसी लडक़ी की तस्वीर है जिससे वो प्यार करता था। आज भी उसने वो तस्वीर अपने बटुए से निकाली नही है। “इसे देखना अपने आप में सुक़ून देता है।”
“जी? मैं समझी नहीं?”
“एक लड़की थी। कॉलेज में मिली थी। वो तो चली गयी पर ये तस्वीर छोड़ गई।”
सृष्टि हैरानी से पूछती है, “तो क्या ये उसी लड़की की तस्वीर है?”
दीपक मुस्कुरा कर हामी भरता है। दोनों भाव विभोर हो गए थे। अपने अधूरे इश्क़ को याद करके शायद रोना चाहते थे, बहुत कुछ कहना चाहते थे, सुन्ना चाहते थे…. की तभी, तभी दरवाज़े पे दस्तक़ होती है।
ख़ुद को संभाल कर सृष्टि जाकर दरवाज़ा खोलती है तो मैकेनिक सामने खड़ा होता है।
“मैडम वो आपके यहाँ से कॉल आया था।”
“हाँ, मैंने ही किया था। वो देखो, गाड़ी वहाँ है। वैन में लोड करो, मैं आता हूँ।” दीपक ने अंदर से उसे कहा।
दीपक दरवाज़े की तरफ़ बढ़ता है। उसके चेहरे को देख कर साफ़ पता चल रहा है, की वो थोड़ी देर और शायद रुकना चाहता था, थोड़ी बातें करना चाहता था। पर नहीं, अपने दिल में उठने वाले इस तूफ़ान को उसे रोकना होगा, वरना अनर्थ हो जाएगा।
वहीं दूसरी तरफ़, सृष्टि भी इसी पशोपेश में थी कि काश उसे थोड़ा सा वक़्त और मिल जाता दीपक के साथ। कुछ था, जो दोनों एक दूसरे से बाँटना चाहते थे शायद।
दरवाज़े से निकल कर दीपक गाड़ी की तरफ़ बढ़ गया। सृष्टि फ़ौरन अपने कमरे में गयी और बिस्तर के नीचे से एक पुराना संदूक निकाला। उस संदूक को खोल कर उसमें से वही चिट्ठी निकाली और उसे देख कर फूट फूट कर रोने लगी।
उस चिट्ठी के अंत में लिखे हुए शब्द उसके दिल को चीर रहे थे, वहाँ लिखा था – तुम्हारा दीपक।
वहीं दूसरी तरफ़, वैन के स्टार्ट होते ही, दीपक एक आख़िरी बार घर की तरफ़ पलट कर देखता है, की शायद सृष्टि उससे मिलने के लिए खड़ी हो, पर वहाँ कोई नहीं होता।
वो मैकेनिक को चलने का इशारा करता है और अपना बटुआ निकालता है। सृष्टि की फ़ोटो को देख कर सिर्फ़ मुस्कराता है। गाड़ी आगे बढ़ती चली जाती है।