“मेरा बचपन किसी भी सामान्य बच्चे की तरह ही था. फ़र्क बस इतना था कि मैं बहुत ही स्वप्नजीवी थी.”
बातों का सिलसिला अपने शुरुवाती दौर में ही था जब इस वाक्य ने सहसा मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। कॉल के उस ओर थीं, सरल स्वभाव, बेहद ख़ूबसूरत आवाज़ और अडिग विश्वास की परकाष्ठा, प्रतिमा सिन्हा। एक नाम जिसे बनारस का हर मंच और माइक जानता है। एक नाम जिसने पिछले दो दशकों से मंच संचालन को सिर्फ़ संभाल ही नहीं रखा, बल्कि उसे नई दिशा, नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया । देश की सांस्कृतिक राजधानी बनारस से ताल्लुक रखने वाली प्रतिमा ने बचपन से ही पूर्णतः किसी का अनुसरण नहीं किया। अब इसे कौतूहलता कहें या जीवन को अपने सलीक़े से देखने का दृष्टिकोण, उनकी इस आदत ने उन्हें “बद्तमीज़” का खिताब भी दिया, पर उन्हें अपनी अलग सोच रखने और इस दुनिया को अपने नज़रिये से देखने से कभी रोक नहीं पायी।
“एक स्त्री होने के नाते मेरी यात्रा स्वाभाविक रूप से बहुत सरल और अनुकूल नहीं रही।”
पहले गायिका, फिर आई.ए.एस., सपने टूटे ज़रूर, पर उन्हें तोड़ नहीं पायी। जहाँ जीवन के आरोह-अवरोह ने उन्हें कई रूढ़िवादी और समाज की कुंठित सोच के प्रतिबाधित एल.ओ.सी पर लाकर खड़ा किया, वहीं अंदर के आई.ए.एस ने सारी सीमाओं को लाँघने का जज़्बा और तरीका, दोनों बताया। इसी बात पर वो आगे कहती हैं,
“एक स्त्री की सबसे बड़ी उपलब्धि हो सकती है कि वह पुरुषशासित समाज के बनाए हुए तमाम बंधनों और मान्यताओं से आगे बढ़कर ज़मीन से आसमान तक अपना मनचाहा संसार बना सके।”
“पहली बार मीडिया शब्द से परिचित हुई थी जब ‘बैचलर ऑफ जर्नलिज्म’ किया था।”
एक अनजाना सफर, ना मंज़िल का पता, ना रास्ते की ख़बर। और जर्नलिज्म भी इसलिए क्योंकि मनचाहा कोर्स नहीं करने मिला। कुछ कुछ सचिन तेंदुलकर की कहानी जैसा! नहीं? इस सफ़र में भी, रुकावटें थीं, मुश्किलें आयीं, पर हर बार से अलग़। शायद गहरा घाव करने वाली, किसी औरत के गरिमा और सम्मान को ललकारती।
“मैं जिस क्षेत्र में हूँ वो आमतौर पर ग्लैमर से जोड़ कर देखा जाता रहा है। कई बार ये भी बताया गया कि अगर मैं ख़ुद को ग्लैमरस, फ़ैशनेबल और ज़्यादा खूबसूरत बना लूँ तो न सिर्फ़ ज़्यादा लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाऊँगी बल्कि मुझे ज़्यादा बड़े प्रोजेक्ट्स और स्टेज भी मिलेंगे।”
एक उद्घोषिका के लिए सिर्फ़ अच्छा बोलना ही पर्याप्त नहीं होता, ये झटका ज़िन्दगी ने बार-बार दिया। कई जगहों पर सिर्फ़ इसलिए हाँ नहीं हुई, क्योंकि इनके व्यक्तित्व में अनायास आडम्बर और बेफ़ालतू चमक-धमक की कमी थी। पर अपने गौरव, मान और हुनर को सर्वोपरि रख कर, और लोगों के दकियानूसी सुझावों को ताक पर रख कर, अपने तरीके से और अपनी शर्तों पर ही काम करना उचित समझा प्रतिमा ने। इसी सिलसिले में वह आगे बताती हैं,
“शायद इसे जेंडर के आधार पर भेदभाव नहीं कहा जा सकता हो लेकिन यह एक महिला को समाज द्वारा बनाये गये उस विशेष खांचे में फिट करके देखने की प्रवृत्ति जरूर है जिसके अनुसार उसमें पुरुष को खुश और उत्तेजित करने का गुण सर्वोपरि माना जाता है और मुझे ख़ुशी है कि मैंने ऐसे हर तयशुदा खांचे को तोड़कर अपनी पहचान बनाई.”
“मेरे लिए “स्त्री स्वतंत्रता”, “महिला सशक्तिकरण” और “नारीवाद” हमेशा आत्मसम्मान से जुड़ा मुद्दा रहा है.”
महिला सशक्तिकरण, एक ऐसा विषय जिस पर शेखी बघारने को हर इंसान तैयार है, पर जिसे निभा शायद बहुत कम लोग पाते हैं, और मैं सिर्फ़ आदमियों की बात नहीं कर रहा। जब हमने इस विषय पर प्रतिमा जी की राय जाननी चाही तो उन्होंने सततः इसे जीने का व्यवहार मात्र बताया, ना की स्टेज पर चढ़ कर, माइक हाथों में ले कर उसका डंका पीटने का। वो अपनी बात को विस्तृत करते हुए बताती हैं :-
“मेरे लिए “सशक्त महिला” वो है जिसके पास फ़ैसले करने का अधिकार, फ़ैसले लेने की हिम्मत और फ़ैसले पर अडिग रहने का जुनून हो. जो दूसरी महिलाओं के आत्मसम्मान का भी ख्याल रखे. जो अपनी शर्तों पर अपने रास्ते तय करती हो और सबसे ज़रूरी बात…. जो अपने महिला होने को एक ‘टूल’ की तरह इस्तेमाल न करती हो”