शाम रात ढलते ढलते
तुम्हारी बात चलते चलते
न जाने क्यों ठहर जाती है
खामोशियाँ जुबान बनते बनते|
पत्ते शज़र से झरते झरते
तितली भंवर सब बन संवरते
न जाने क्यों ठहर जाती है
पतझड़ बहार बनते बनते|
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