हाँ मैं रुक गयी…
भागते भागते,
खुद से, लोगों से…
अपनों से, परायों से,
मैं थक गई
मैं रुक गयी…
मैं रुक गयी ये सोच के,
कहीं खुद से ना दूर चली जाऊँ,
मैं रुक गयी ये सोच के,
कहीं भीड़ में बस भीड़ ना होके रह जाऊँ
कहीं अपने आप में तुमको, और तुम में खुद को ढूँढने बैठूं
पर जब से रुकी हूं,
तुम मानो ना मानो,
समंदर सा सैलाब आता है,पर बहाता नहीं
सूरज की कड़क धूप अब चुभती नहीं
हवाओं में अपने लिए प्यार ढूंढ लेती हूं
सुबह की पहली किरणों में दुआए ढूंढ लेती हूं
अब ना दरवाजे पे किसी के आने का इंतजार है
और ना ही घड़ी के सुइयों से हमे प्यार है
अब वक्त की नजाकत नहीं, ठहराव अच्छा लगता है
किसी में डूबना नहीं, खुद को पाना अच्छा लगता है
जब से रुका है, खुद को पहचानने लगी हूँ
अब आईना नहीं कहता तू खूबसूरत है
दिल से आवाज आती है तू बस तू है
हाँ इसीलिये मैं रुक गयी…
To Read more from Author
कलामंथन भाषा प्रेमियों के लिए एक अनूठा मंच जो लेखक द्वारा लिखे ब्लॉग ,कहानियों और कविताओं को एक खूबसूरत मंच देता हैं।लेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं और ज़रूरी नहीं की कलामंथन के विचारों की अभिव्यक्ति हो।
अगर आप भी लिखना चाहते हैं तो http://www.kalamanthan.in पर अपना अकाउंट बनाये और लेखन की शुरुआत करें।
हमें फोलो करे Facebook