थम जाती कलम भी आज
ठहर जाती उंगलियां भी आज
मैं लिखना चाहती हूं ‘ प्रेम ‘
लिख डालती हूं ‘ क्षोभ ‘
लिखना चाहती हूं ‘ वीरता ‘
लिख डालती हूं ‘ कायरता ‘
मैं लिखना चाहती हूं ‘ उम्मीद ‘
फिर यह कैसी नाउम्मीदी
अंक में भर लेती बार – बार
उस पीड़ा की कल्पना भी
जड़ कर देती मुझे
कैसे? कैसे झेली होगी
उसने पीड़ा अपार
मुखरित था जो घर – आंगन
पायल की रुनझुन से कल
आज सन्नाटे से
बन उठा सुर – श्मशान क्यूं
दूर – दूर तक विस्तृत
व्याप्त तिमिर अज्ञात
निरवता, शून्यता, अज्ञात
कब तक – कब तक
खंडित होती रहे मर्त्य स्त्री रूप?