स्टेशन से महेंद्र सीधे राजीव के दफ्तर पहुँचा, और जाता भी कहाँ? घर का अता-पता तो था नहीं, हाँ राजीव इस मल्टीनेशनल कम्पनी में चीफ मैनेजर के पद पर कार्यरत है, इतनी जानकारी थी; सो वह वहीं आ गया। मुख्य द्वार पर ही दरबान ने सामना हुआ “भाई साहब! ये बैग-वैग उठाए अंदर कहाँ चले जा रह रहे हो? बस स्टैंड नहीं है, मल्टीनेशनल कंपनी का ऑफिस है!”
महेंद्र ने ठिठक कर हाथ में पकड़ा हुआ संदूक वहीं सीढ़ियों पर रखा और कंधे पर टंगे झोले संभाल कर दरबान से कहा….”जानते हैं भैया.. जानते हैं! मल्टीनेशनल कंपनी है, मेरा भाई चीफ मैनेजर के पद पर काम करता है यहाँ, उसी से मिलने आए हैं।” महेंद्र ने कहते हुए पसीने से तर हुए अपने गर्दन को खुजलाया।
“अरे तो भाई के घर जाना चाहिए ना! ये कोई मिलने की जगह है क्या? चलो बक्सा उठाओ अपना, किसी साहब ने तुमसे गप्पे मारते देख लिया तो मेरी तो नौकरी गई समझो।” दरबान ने संदूक की ओर इशारा कर उससे अपने शब्दों से बाहर धकेलना चाहा।
“भैया घर का पता होता तो वहीं चला जाता। ओह! कितनी भीषण गर्मी है, आस-पास कहीं कोई पेड़ की छाँव भी नहीं जहाँ इंतज़ार कर सकूँ। अभी तो आप यहीं मिलवा दीजिए ना भैया!” महेंद्र ने मिन्नत की फिर पाकिट से मोबाईल निकाल कर उसमें से अपनी और राजीव की पुरानी तस्वीर उसे दिखा कर कहा “ये देखिए हम और हमारा भाई…. राजीव।”
दरबान ने एक बार तस्वीर देखी फिर हाथ से भीतर जाने का इशारा किया।
अपने अमीर भाई से मिलने के संघर्ष का एक पड़ाव पार कर विजय मुस्कान के साथ उसने रिसेप्शन हाल में प्रवेश किया। यह मुस्कान इसलिए है, क्योंकि वह जानता है कि अमीरी और मजबूरी के बीच जो गहरा समंदर है उसे पाटने के लिए पानी में पत्थर का तैरना सरल नहीं।
अस्त-व्यस्त अवस्था में किसी को अंदर आते देख रिसेप्शन पर बैठी बुजुर्ग महिला भूखी शेरनी की तरह दहाड़ पड़ी…”हैलो….! हैलो मिस्टर….!! ये टीन का डब्बा उठाए अंदर कहाँ चले आ रहे हो? ये दरबान भी ना किसी काम का नहीं, जिसे मन किया अन्दर भेज देता है। देखो यहाँ कोई चंदा-वंदा नहीं मिलने वाला, चलो निकालो यहाँ से!” उसने एक साँस में कहा और इशारे से तत्काल बाहर का रास्ता दिखाया।
महेंद्र शेरनी के चंगुल में आए निरीह मेमने की भाँति स्तब्ध हो कर ठिठक गया, वह समझ नहीं पा रहा था की उसे कहना क्या चाहिए। सोचा बाहर निकल कर ही इंतज़ार कर लूँ, लेकिन बाहर तमतमाए सूर्य देव के प्रकोप की सोच कर लगा वहाँ झुलसने से बेहतर है यहाँ इस शेरनी का ही सामना कर लिया जाए। आखिर सुदामा को भी कृष्ण से मिलने केलिए द्वारपालों का सामना तो करना ही पड़ा था।
“नहीं, चंदा माँगने नहीं आए हैं, अपने भाई से मिलने आए हैं… राजीव…! चीफ मैनेजर….! हमारा छोटा भाई है, समस्तीपुर से मिलने आए हैं उससे। आप एक बार खबर कर दीजिए ना!” महेंद्र ने अनुनय किया।
“ओह! राजीव सर के भाई हैं आप। सर मीटिंग में बिजी हैं अभी, आप यहीं बैठ कर इंतज़ार कीजिए। वो बाहर आएंगे तो मिल लीजिएगा।” बूढ़ी महिला ने स्वर में कुछ नर्मी लाते हुए कहा।
महेंद्र वहीं सोफे पर बैठ कर इंतज़ार करते हुए कॉरिडोर की गालियों को बार-बार निहार रहा था। “बहुत बड़का आदमी बन गया है रजिबवा। इतना बड़का आफिस में मैनेजर हैं, कोई मामूली बात है का! बरसों पहले कैसे बाबू जी कोरा में पजियाए* हुए रोता-बिलखता लेकर आए थे उसको। उसका पूरा घर दहा गया था बाढ़ में, बरी मुश्किल से बाबू जी जान पर खेलकर इसको बचा पाए। तब से अपना बच्चा जैसा पोसे हैं। ह्ह्हं…..!! इतना अमीर हो गया है, इतना बरस भी बीत गया, का पता कहीं हमको चीन्ह नहीं पाया तो…? ई बृद्ध महिला तो हमको कच्चा चबा जाएगी।” सोचते हुए महेंद्र यकायक सोफे से खड़ा हो गया…. “चाची…! ओ चाची…. जरा पता कीजिए ना…. एक…एक बार खाली कह दीजिए ना कि समस्तीपुर से महेंद्र मिश्रा आया है।”
इस बार उस महिला ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा और कहा, “एक बार में समझ में क्यों नहीं आता ? बताया ना अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा सर बिजी हैं। बहुत जल्दी में हो तो जाओ, कल आना। और चाची किसे कहा तुमने…! हाँ…कौन है चाची यहाँ…?”
रिसेप्शन पर बैठी हुई उस खडूस बूढ़ी औरत ने इस बार सचमुच बेइज़्ज़ती की थी।”
महेंद्र सकपका कर दुबारा बैठ गया। थोड़ी देर बिना हिले-डुले एक ही अवस्था में बैठने के बाद धीरे से झोले में से एक खिल्ली पान निकाल कर चबाते हुए दोनों हाथ माथे के पीछे अड़ा कर कुशन पर अधेड़ होकर टिक गया। दो पल आँखे बंद हुई तो बसरों पुरानी यादों की फिल्म शुरू हो गई।
बाबू जी बचा कर तो ले आए राजीव को, लेकिन अगले ही दिन पूरी बिरादरी जमा हो गई। एक अछूत के बच्चे को हम घर में कैसे रख सकते थे? किसी ने कहा ” मास्टर साहब! इनका छुआ तो पानी भी नहीं पिया जाता। मानवता के नाते आप घर ले आए तो कोई बात नहीं, आज-कल में ही इसे अनाथालय छोड़ आइए। फिर शुद्धिकरण करा लीजिएगा।” लेकिन बाबू जी ठहरे उसूल के पक्के।
वहीं कोने में राजीव कटोरी में दाल-भात खा रहा था, उसी में से एक कौर उठा कर खाते हुए बोले….”इंसानियत से बड़ा कोई जाति-धर्म नहीं, महेंद्र के तीन बरस का होने के बाद से ही हम दूसरी संतान की राह देख रहे थे, आज ईश्वर ने मनोकामना भी पूरी कर दी।”
गाँव वालों ने बिरादरी से बाहर कर दिया, अम्मा नाराज़ होकर हमको साथ लिए ननिहाल चली गईं। वो तो जब राजीव को छात्रवृत्ति मिली वह दिल्ली आ गया, तब दस बरस के बनवास के बाद वापस घर लौटीं, वो भी इस शर्त पर कि आज के बाद घर में कोई उससे संपर्क नहीं रखेगा। राजीव भी जानता था कि उसका साथ बाबू जी के गृहस्थी को लील रहा है, इसलिए एक बार जो घर से गया, फिर लौट कर नहीं आया। वह अक्सर कहता था “मेरा पूरा जीवन बाबू जी की उधारी है, लेकिन मैं यह कर्ज इस जनम में नहीं चुकाना चाहता, ताकि अगले जन्म में फिर उनका साथ पा सकूँ।” फिर भी वह हर महीने बाबू जी को पैसे भेजता है, और बाबू जी उसे हाथ लगाए बगैर गरीब बच्चों के पढ़ाई केलिए अनुदान कर देते हैं, कहते हैं “राजीव के सहयोग से किसी बच्चे का जीवन कमल बन कर खिल उठे इससे बेहतर और क्या हो सकता है!”
महेंद्र की अलसाई आँखे भक्क से खुल गई जब उसके मुँह से पान का पीक बहने लगा। झट से सीधा हुआ और इधर-उधर देखने के बाद खूबसूरत गमले में होठों की पिचकारी से पूरा पीक उड़ेल दिया।
“ए….ए…ए… मिस्टर ये क्या कर दिया?” रिसेप्शनिस्ट तमतमाते हुए कुर्सी से खड़ी हो गईं।
“अरे कुछ नहीं मैडम! ये तो हमारा हुनर है। ई तो जल्दबाजी में ऐसे ही पिचकारी चला दिए, नहीं तो दू अंगुली ठोढ़ पर धर के आ तब जो निशाना लगाते हैं ना, वैसा निशाना तो पूरा समस्तीपुर में कोई नहीं लगाता। वैसे ई वाला निशाना भी एकदम परफैक्ट था ना, सीधे गाछ के जड़ में लगा!” महेंद्र को लगा मैडम उसके निशानेबाजी की कायल हो गई हैं, तो वह खुशी से इतराने लगा। लेकिन जल्द ही उसे एहसास हुआ कि जिसे वह अपना कारनामा समझ रहा था, दरअसल वह एक बड़ी भूल थी।
“गमछा….गमछा से अभी साफ कर देता हूँ मैडम जी, ऊ थोड़ा अलासा गए थे ना इसीलिए……!” महेंद्र शर्मिंदगी से मुँह छुपा रहा था। माँ ने कितनी बार टोका था, पान की पीक यहाँ-वहाँ न फेंका करे, लेकिन दोस्ती-यारी में बावला हुआ रह गाया और आज देखो….! महेंद्र झोले में गमछा ढूँढ़ने लगा, तभी बूढ़ी मैडम गरजते हुए बोलीं “रहने दीजिए…. रहने दीजिए…! आपको और कुछ करने की जरूरत नहीं है। हरीश….! इधर आकार जल्दी से यह गंदगी साफ़ करो, किसी ने देख लिया तो फिजूल में बातें सुननी पड़ेंगी।”
“ऊ क्या है न मैडम… हम बिहारी हैं ना, इसलिए….”
“क्या बिहारी हैं…? हाँ, क्या हुआ बिहारी हैं तो? मैं खुद बिहार से हाँ, राजीव सर भी बिहारी ही हैं यह कंपनी उत्तर भातीयों से भरी परी है, कोई ऐसी अभद्रता नहीं करता। आपनी गलती छिपाने केलिये पूरे उत्तर भारत पर तोहमत मत लगाइए। आप जैसों के कारण ही लोगों की गलतफहमी बढ़ती है! अब शांति से बैठ कर इंतज़ार कीजिए; और हाँ, किसी हाल में अब और अशिष्टता नहीं कीजिएगा…..प्लीज़!” वह गुस्से में आगबबूला हो गई थीं।
महेंद्र जो इसके पहले सोफे के बीच में बैठा था, अब एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया। शर्मिंदगी से किसी की ओर देखने की हिम्मत नहीं बची। “सही कह रही है मैडम, गलती हमारी है, और हम पूरे बिहार को……! राजीव ने यहाँ आ कर पूरे प्रांत का नाम ऊँचा किया, कितना सम्मान है उसका, और हम सब मिट्टी पलीद कर दिए।” सोचते हुए महेंद्र को हर मुस्कुराते चेहरे को देख यही लग रहा था कि शायद वह उसे देख कर ही हँस रहे हैं।
“इतने बड़े-बड़े ऑफिसर और अधिकारी बनते हैं बिहार से, सब बिहार का नाम रौशन करते हैं, कोई हम जैसी अभद्रता करता है क्या! पूरा समय लफंगई में नहीं गुजारा होता, तो आज ऐसा न होता। इतना बरा आदमी है राजीव, मेरी वजह से शर्मिंदा न होना पड़े उसे?
आह…! तब हम 12 बरस के थे जब अम्मा के साथ ननिहाल चले गए। अच्छा-बुरा समझने जितनी बुद्धि तो थी ही, बाबू जी का कहा मान कर उनके साथ रुक सकते थे, लेकिन तब तो हमको भी सुनहरा अवसर नजर आया पढ़ाई से भागने का!
बहुत अच्छी, दिल को छूनेवाली अपने शीर्षक को चरितार्थ करती हुई कहानी। Must read
हार्दिक धन्यवाद
Heart touching story
Inspirational plus motivational
Beautiful heart touching story.
Very inspiring….very well written
Very emotional and beautiful story
Very emotional and beautiful story. Loved it