अभी कुछ दिन पहले ‘नई वाली हिंदी ‘ पर विमर्श हो रहा था और मेरा कहना यही था की इस ‘नई वाली हिंदी ‘ में भी खूबसूरत लिखने वाले हैं।
बीती रात में अदरक वाली चाय के प्याले के साथ Nikhil Sachan की लिखी यह किताब खत्म हुई।
कुछ ऐसा जैसे नर्म धूप में यादों का गोला खुल जाए।यादें बचपन की जहाँ हम सबके अपने अपने पापा मैन है।
“पापामैन जो कुछ कुछ मां जैसे ही होते है। जिनका मन किसी बरगद के जितना विशाल और स्वभाव किसी झील के पानी जितना मीठा। “
कहानी यहीं अपने कानपुर की।
इस किताब में आपको मिलेगा ,शहर अपना (पड़ोसी ) और किरदार अपने जैसे।
आई आई टी कानपुर में पढ़ने वाली मिडिल क्लास घर से ताल्लुक रखती छुटकी। बड़ी चीज़ है अगर अपने शहर की लड़की इंजिनीरिंग करे वो भी आई आई टी से उस पर रैंक टॉपर । छुटकी ऐसी लड़की जिसे देखने तो मोहल्ले के लड़के इकठ्ठे होते लेकिन छेड़ने की हिम्मत कोई न करता ! वो MIT जा कर आगे पढ़ना चाहती है।

उसके परिवार में है माँ पापा और बहन। मिडिल क्लास घर जहाँ बेटियाँ बेटों जैसी नहीं बस बेटियों सी ही दुलारी जाएँ और सशक्त की जाएँ। उनके हर सपने को उड़ान भरने का प्रोत्साहन मिले।
अपनी माँ जैसी ही माँ का किरदार जिसका जीवन किचन के राशन पानी सब्ज़ी भाजी और बेटियों की परवरिश और उनके अच्छे भविष्य की कामना में निकलता है। बेटी की शादी में रिश्तेदारों के नखरे उठाती उसकी दुनिया बस उसकी गृहस्थी !
पिंटू जैसा कोई जो पड़ोस में रह कर बचपन का साथी तो बनता है पर जीवन साथी नहीं बन पाता। कभी उसकी कहने की हिम्मत नहीं होती कभी ज़िन्दगी के पलड़ों पर एक पलड़ा हल्का पड़ जाता है। कोई अन्नू अवस्थी भी याद आएगा जो अपने “भइया जी ” की बुद्धि की बलैयां लेते नहीं थकता।
कोई नील जैसा भी किरदार जो कानपुर या लखनऊ में रह कर यु एस ऑफ़ ऐ जाने के सपने देखता है और जी जान से मशक्क्त करता है।
छोटे छोटे तमाम किरदार जो कानपुर को किताब में उतार देते है या यूँ कहे की आपको कानपुर में लैंड करा देते है।
इन सबके बीच पापामैन ! चंद्रप्रकाश गुप्ता – छुटकी के पिता।
हाँ वही – हमारे अपने , पिता, पापा ,डैड ,अब्बा ,अप्पा जो बचपन में हमारे सुपरमैन होते है।
जो आसमान को ज़मीन पर उतार देने का दम नहीं भरते लेकिन हमें आसमान में उड़ने का हौसला देते हैं।
हमारे हर सपने को हकीकत की ज़मीन देते है और इन सब के बीच उनके अपने सपने धीरे धीरे ज़िम्मेदारियों के परतों के नीचे दब जाते है। उम्र बढ़ती है लेकिन वो हमेशा पापामैन ही रहते है।
हमारे हर फैसले में हमारे साथ बिना शक बिना सवाल।
पर क्या हम उनके किसी सपने को उतनी तवज्जो देते है ?
क्या उनके सपने को समाज के तानों और मज़ाक से बचा पाते हैं ?
उनके सपने को क्या हकीकत की ज़मीन देते है ?
क्या अपने पापामैन का रॉबिन बन पाते हैं ?
ये कहानी आपको हंसाएगी और कहीं कहीं आँखें नम भी कर देती है।
हिंदी साहित्य को नई पीढ़ी में लोकप्रिय और प्रचलित करने के लिए ज़रूरी है की कहानियां ऐसी लिखी जाएँ जिससे वो जुड़ा महसूस कर सकें। तो ये ‘नई वाली हिंदी ‘ को पढ़ते हुए भी आपको भाषा का उतार चढ़ाव गुदगुदाएगा।
कुछ पंक्तियाँ ऐसी जिन्हे बार बार पढ़ा जा सकता है
“पुरुष अक्सर ऐसा करते हैं ,वह अपने भीतर की स्त्री को हमेशा दुनिया से छुपाकर रखते हैं और जीवनभर इसकी पीड़ा झेलते हैं। “