सरिता माँ से लिपट कर बिलखती जा रही थी, उसकी तीनों बहनें दुखी मन से दीदी का बैग समेट रही थी, और पिता बटुए में रखे पैसों को ठीक से गिन कर व्यवस्थित कर रहे थे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। सबसे छोटी बहन अमृता ने गीली पलकों को आस्तीन से पोछा और दरवाजे की ओर गई
“सुनिए ये एड्रेस बता सकेंगी। एक अजनबी की आवाज़ आयी और गेट खोलते हुए ही उसने पीछे मुड़ कर देखा।”
दीदी वापस उस नर्क में जाने का ज़रा भी साहस नहीं कर पा रही थी, और बाकी घर वाले उसे अनचाही दिशा की ओर धकेलने में लगे थे। अमृता चाहती थी कि दीदी को कस कर अपने बाहों में पकड़ ले, ताकि कोई चाह कर भी उसे जबरन ससुराल न भेज सके। विनोद का हिंसक व्यवहार और उदंडता को उसने भी देखा था। जितनी दाफा सरिता ससुराल जाती, अमृता इसी भय से घिरी रहती कि क्या इस बार उसकी दीदी वापस आएगी।
जाने क्यों उम्र में सबसे छोटी होने के बावजूद वह जिस हिंसा को जान और समझ पा रही थी, उसके माता-पिता उसकी अनदेखी क्यों कर रहे थे? क्यों अपनी एक बेटी खोने के बाद भी दूसरी बेटी को बचाने का प्रयास उन्हें वाजिब नहीं लग रहा था। क्या गरीब पिता लाचारी के नाम पर अपनी बेटियों की ऐसे ही निर्मम बलि चढ़ाता है?
क्या आखिर में उसे भी ऐसे ही किसी अंधे कुंए में धकेल दिया जाएगा? क्या बेटियों का जन्म मात्र इसलिए ध्येय केलिए है कि पिता कन्यादान का पुण्य अर्जित कर सके और फिर पति के भोग का साधन बने?
कितनी बार पापा से कह चुकी थी कि अब बस पापा, अब दीदी को वहाँ न भेजिए। लेकिन छोटी थी ना, उसकी बात को तवज्जो कहाँ मिलती थी? अमृता अपने अंतः द्वंद में उलझी थी कि अजनबी की आवाज आई….. “एक्सक्यूज मी मैडम, ये पता बता दीजिए ना बरी मेहरबानी होगी, ये चिट्ठी पहुंचानी है। पिछले ढ़ाई-तीन घंटे से मोहल्ले के चक्कर काट रहा हूँ, लेकिन हर बार गलत पते पर ही पहुंच जाता हूँ, वो क्या है ना कि मेरे पिता डाकिया हैं। उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं है, इसलिए मैं चिठ्ठियां पहुंचा रहा हूँ।”
“क्यों इतनी परेशानी क्यों उठा रहे हैं, चिठ्ठी ही तो है! सही पता नहीं मिल रह है तो किसी गलत पते पर ही छोड़ दीजिए, इतनी मेहनत कर खुद को परेशान करने का क्या फायदा?” अमृता का दिल दिमाग सरिता के चोट के निशान और उसके आँसुओं से पहले ही विचलित हुआ परा था, इसलिए उसने झल्लाते हुए कहा।
“क्या बात करती हैं मैडम! गलत पते पर इस कागज का क्या मोल? लेकिन सही पते पर तो यही कागज अनमोल है। मेरी जिम्मेदारी है कि मैं इसे सही पते पर पहुँचाऊं। आप देखिए ना ये पता, शायद आप कुछ मदद कर सके।” अजनबी ने निवेदन किया।
अमृता ने पता देखा और कहा “भाई साहब! सब सही है, बस मुहल्ला गलत है। आप हमारे पीछे वाले मुहल्ले में जाएं। आपको सही पता मिल जाएगा।” कहते हुए अमृता ने दरवाजा बंद किया।
“कौन है अमृता? रिक्शा वाला नहीं आया क्या? अरे बस स्टैंड जाने में देर हुई तो बस छूट जाएगी। ललिता भी ना एकदम सुस्त है। लग गई होगी गोलगप्पे खाने में।” पिता ने परेशान होकर कहा। एक तो बढ़ी हुई उम्र, उस पर दसियों तरह की बीमारी, उस पर किस्मत ने पीठ पर डाला है पांच-पांच बेटियों का बोझ, उसपर से चरमराई आर्थिक स्थिति। जयराम अपने उम्र से दुगुने लगते थे। चिंता की रेखाएं पेशानी को पूरी तरह से भर चुकी थी।
अभी दो साल पहले ही बड़ी बेटी रसोई गैस में आग लगने से मर गई। अपनी सारी जमा पूंजी उसकी शादी में लगा दी थी, बाद में भी वो लोग जितना माँगते गए, जयराम देते गए। लेकिन बेटी नहीं बची। उसी के कर्मकांड के दौरान किसी रिश्तेदार ने बताया कि कपिलेश्वर बाबू के छोटे सुपुत्र का विवाह है। लेकिन मंझले बेटे केलिए योग्य कन्या की तलाश अब भी जारी है।
दरअसल कापिलेश्वर बाबू अपने मंझले बेटे विनोद की शादी किसी गरीब की बेटी से करके उसका उद्धार करना चाहते हैं। बस लड़की पढ़ी-लिखी, गोरी, सुंदर और संस्कारी होनी चाहिए जो नौकरी भी कर सके। विवाह केलिए कन्या पक्ष से कोई माँग नहीं रखी गई है।
जयराम जी को तो जैसे थाली में परोसा हुआ छप्पन भोग मिल गया। कोई और इस थाल पर टूट परे, इसके पहले उन्होंने स्वयं इस अवसर को लपकने में होशियारी समझी। आव देखा न ताव बिना मंगनी झट ब्याह तय कर आए। इस जल्दबाजी में लड़के की जाँच-पड़ताल तो दूर उन्होंने लड़के से मिलने पर उसके विचित्र व्यवहार को भी अनदेखा कर दिया। जयराम के जीवन का जैसे एक ही ध्येय रहा गया था ” अपने जीते जी जैसे भी हो यथा शीघ्र कन्यादान के बोझ से मुक्त हो लो।”
सरिता और बहनें चाहती थीं कि एक बार लड़के से मुलाकात तो हो, मुलाकात न सही फोन पर बात तो हो। जयराम जी ने गुजारिश की तो जवाब मिला “एक सप्ताह में तो शादी ही है, फिर क्या मुलाकात और क्या बात? हम भी तो लड़की को नहीं देख रहे हैं।” और तस्वीर के नाम पर वर्षों पुराना ब्लैक एंड व्हाईट फोटो थमा दिया गया।
शहनाइयां बज रही थी। लोगों की चहलपहल माहौल को और खुशनुमा बना रहा थी। आज के समय में बिना दान-दहेज़ के कौन किसी की बेटी ब्याहता है? लड़के वालों की नेकदिली तो देखो लड़की देखना भी मुनासिब नहीं समझा, बड़े भागों वाली है सरिता। नाते रिश्तेदारों की मीठी-मीठी प्रतिक्रिया सरिता के मन में शहद सी मिठास घोल रही थी। उसके मन में सपनों की एक नई दुनिया की चहलकदमी शुरू हो चुकी थी। बारात ने बिना बाजे-गाजे के साथ प्रवेश किया। सरिता को यह शांति भी अदम्य सुख की अनुभूति दे रही थी।
मंत्र पढ़े गए, फेरे हुए, कन्यादान हुआ और मांग भरी गई। सरिता माता-पिता और बहनों से स्नेहिल विदाई लेकर ससुराल आ गई। घूँघट में सिमटी सरिता अपने अंगना से बिछोह पर रो रही थी, तो साथ में अपने पिया के आँगन में प्रवेश के खुशी के आँसू भी छलक रहे थे।
बीतते समय के साथ सरिता की धड़कने तेज हो रही थी। कैसी होगी उनकी सूरत जिनके एहसास ने सबका दिल जीत लिया। किसी राजा महाराजा के रौबदार छवि की चाह नहीं थी, लेकिन साफ़दिल की आभा से भरा हुआ चेहरा यह चाहत जरूर थी। घड़ी की सूई घूमती रही और वह वक्त आया जब सरिता और उसका जीवनसाथी जो अब तक कल्पना में था वह उसके सामने था। घूँघट हटा तो सकुचाई हुई सरिता ने हौले से नजर ऊपर उठाई….. और…और फिर …..अगले ही पल तारों सितारों से भरे सुंदर ब्रह्मांड में एक विशाल ब्लैक होल जैसे उसे अपने गर्भ में खींच रहा था। ये कौन है….. एक अधेड़ उम्र सा व्यक्ति गहरे रंग के चेहरे पर बेतरतीब मुंहासों के निशान, लाल-लाल बाहर की ओर उभरी हुई आँखें, प्रथम मिलन को आने से पहले भी मुँह में ठूंसा हुआ पान मसाला तक निकालना उसे वाजिब नहीं लगा।
सरिता को देख कर उसने अपने नारंगी हुए बत्तीसी को निकाला तो पूरा कमरा गुटखे की दुर्गंध से भर गया। सरिता को लगा वह अब बस वहीं उल्टी कर देगी। उसने खुद को संभालने की कोशिश की, लेकिन दिल और दिमाग दोनों सुन्न ही होते गए। उसका सपना हकीकत से टकराकर एक बार में ही चकनाचूर हो गया।
एक दो दिनों में ही सरिता जान गई उसके दहेजमुक्त विवाह की हकीक़त। जिस घर में बिना तोल-मोल के एक भी लड़का नहीं ब्याहा गया, वहां सरिता पर किए गए एहसान के सच से परदा उठ चुका था। अपने उदंड या यूँ कहें कि मंदबुद्धि बेटे के आदर्श विवाह का यश बटोर चुके सास-श्वसुर ने सरिता को ब्रह्मज्ञान दिया….
“पत्नी चाहे तो पति चाहे कैसा भी हो उसका जीवन अपने प्यार, संयम और समर्पण से संवार सकती है। अब विनोद की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी है।” सरिता हैरान थी जिसे इतने वर्षों में जन्मदाता होने के बाद भी वो सही राह पर न ला सके, अपने प्यार और संयम से वह अचानक कौन सा चमत्कार कर सकती है!
सरिता की अग्नि परीक्षा विवाह के फेरों के साथ ही शुरू हो चुकी थी। विनोद केलिए सरिता मात्र एक वस्तु थी, जिससे कभी किसी तरह का इनकार सुनना उसे उग्र बना देता। विनोद के क्रूरता के नए-नए अध्याय खुलते गए, और सरिता की सहनशीलता धीरे-धीरे कमजोर पड़ती गई। थक कर कई बार अपने मायके गई, गुहार लगाई। लेकिन वहाँ भी आसरा की जगह परम ज्ञान की पोटली ही थमाई गई। “धैर्य से काम लो, सब ठीक हो जाएगा। अब यह भी तो देखो तुमसे छोटी बहनों की जिम्मेदारी बाकी है, तुमने कुछ गड़बड़ कर दिया तो कितनी बदनामी होगी, कौन शादी करेगा तीनों लड़कियों से?” और सरिता अपने आँसू पोछ वापस उसी नर्क की ओर चल देती।
आज फिर सरिता कई घाव लिए मरहम की उम्मीद से मायके आई। लेकिन उसके आने से पहले ससुराल से खबर आ गई कि बेटी बिना बताए सामान के साथ निकल गई है।
सरिता आई तो उसके ज़ख्म देखने से पहले उसे ये समझाया जाने लगा कि आखिर उसने ऐसी हिमाकत की क्यों? “कितने भले लोग हैं, बार-बार तुम यहाँ चली आती हो शिकायत का पिटारा खोल कर, और वो लोग फिर भी तुम्हें अपना लेते हैं। अरे छोटी-बड़ी परेशानी किस शादी में नहीं होती, उसे प्यार से संभालना होता है। ऐसे बात-बात पर भागने से कोई शादी टिकती है क्या?” जयराम ने बेटी को समझाया और न चाहते हुए भी सरिता को दुबारा ससुराल जाने को मानना ही पड़ा। यह पूरी गहमागहमी उसे वापस ससुराल भेजने के लिए ही थी। इतने में ललिता भागती हुई कमरे में आई और बताया की रिक्शा बाहर खड़ी है।
उस अजनबी की दस्तक ने जैसे अमृता के सोए हुए दिल को भी दस्तक दे दी। पिता के पास जाकर कहा….”पापा, बड़ी दीदी की आत्मा हमें कभी माफ नहीं करेगी। यदि सरिता दीदी को भी जान-बूझ कर हमने इस नर्क की आग में झोंक दिया तो…. पापा बाहर एक आदमी किसी की चिठ्ठी सही जगह पहुंचने केलिए कब से भटक रहा है। इतना परेशान होने के बाद मेरे कहने पर भी उसने उस कागज़ के टुकड़े को यहाँ-वयहाँ नहीं फेंका, फिर आप कैसे अपनी बेटी को कहीं भी छोड़ सकते हैं? आप क्यों अपनी जिम्मेदारी को जैसे-तैसे बस निपटाने में लगे रहते हैं?” अमृता दबा हुआ आक्रोश लावा बनकर फूट पड़ा।
“ये क्या कह रही हो अमृता? मैं कब भागा हूँ अपनी जिम्मेदारी से? पढ़ाई-लिखाई, कपड़ा-खाना सब पूरा कर तो रहा हूँ। और बड़की के जीवन केलिए क्या नहीं किया मैंने, कर्ज लेकर भी माँग पूरी की। अब जीवन-मरण पर तो किसी का बस है नहीं। बेचारी हादसे का शिकार हो गई। किसी के किस्मत को कौन बदल पाया है! सरिता के ससुराल वालों को देखो, इतने उच्च विचार के है। आज के समय में एक ढ़ेला लिए बगैर रिश्ता किया है कपीलेश्वर बाबू ने। अब सरिता और दामाद जी के बीच का मसाला तो इन दोनों को ही सुलझाना है ना!” जयराम जी के सफाई से अमृता और व्यग्र हो गई….
“इतने सभ्य हैं तो दीदी के शादी के दो दिन बाद ही उनके छोटे बेटे की शादी थी। दहेज़ में रुपया, गाड़ी, सोना सब मन भर कर लिया उनलोगों ने, तो बिना दहेज़ के दीदी की शादी अपने योग्य बेटे से क्यों नहीं की? क्यों पुण्य पाने केलिए उन्हें अपना नालायक और पागल बेटा ही उचित लगा?
पापा हम बेटियाँ हैं, आप हमें बोझ समझ कर बस कंधे से उतारने के प्रयास में मत कीजिए। मजबूरी की शादी नहीं चाहिए हमें। पापा हम पढ़-लिख कर आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं, फिर हम आपकी सारी परेशानी वैसे ही दूर कर सकते हैं, जैसी उम्मीद आपको अपने बेटे से होती। लेकिन मौका देने से पहले हमें बंदिनी मत बना दीजिए। पापा नहीं, दीदी अब नहीं जाएगी। हम बच्चे नहीं है कि घर में हो रहे अन्याय को गांधी जी के बंदर बने देखते रहें।”
कहते हुए अमृता सरिता के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोली “चलो दीदी! रिक्शा बाहर खड़ी है, पुलिस स्टेशन चलते हैं। अब तुम्हारे एक-एक घाव का हिसाब लेना है। अब गलत पते नहीं जाना होगा तुम्हें।” सरिता की और दोनों बहनों ने भी साथ आकर उसका हाथ थाम लिया। सरिता को पहली बार अपने भीतर होते शक्ति संचार का आभास हो रहा था। अनायास ही दर्द से बहते आँसुओं के बीच उसके चेहरे पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान बिखर गई।
Bahot hi marmik kahani
Bahut hi sachhi kahani hai.. Dil ko chhu lene wali.
This was really moralistic. It inspired me a lot to break the norms of the patriarchal society. I am stronger than the unbelief!
bahut achhi khani hai rani
सही निर्णय के साथ कहानी का अन्त किया है, बहुत सुंदर
Wow wonderful..very inspiring
तुम्हारी कविताएं तो छाप छोड़ते हैं ही आज कहानी ने भी में खुश कर दिया.. बहुत ही उम्दा कहानी