जीवन में कुछ खास पल होते हैं जब एक स्त्री को उसके स्त्रीत्व पर गर्व की अनुभूति होती है| वो पल जब वो छोटी बच्ची होती है और उसे नवरात्रों में माँ दुर्गा का रूप मानकर पूजा जाता है| तब जब वो खूबसूरत यौवना होती है और प्रेम को समझने लगती है। उस पल वो झूम उठती है जब उसी का मनपसंद युवक ये कहे कि वो उसे पसंद है और उससे प्रेम करता है और उससे शादी करना चाहता है!
खास पल वो जब शादी के बाद उसे उसका पति ये एहसास करवाता है कि वो स्त्री उसकी अर्धांगिनी है और उसके बिना उसका अस्तित्व अपूर्ण है| वो खास पल जब स्त्री एक बच्चे को जन्म देकर मातृत्व का एहसास कर पाती है| नन्हें बच्चे को स्तनपान करवा कर उसके चेहरे पर संतुष्टि व तृप्ति की झलक देख पाती है| और ये गर्व तब भी होता है जब वो स्त्री अपने बच्चों को नैतिकता और एकता का पाठ सिखाकर एक संयुक्त और एक-दूसरे की परवाह करने वाले परिवार का निर्माण कर पाती है|
लेकिन ये एक अधूरा सच है क्योंकि स्त्री को तो त्याग की मूरत की उपाधि दी गयी है| समाज की दी हुई इस उपाधि को स्त्री हमेशा अपने कन्धों पर उठाए रहती है| उसने त्याग किया है, हाँ बहुत त्याग किया है लेकिन उसे उस त्याग पर गर्व होना चाहिए इस एक अनुभूति से वह हमेशा ही वंचित रह जाती है| समाज का ये कड़वा सच उसे त्याग करने की सलाह तो देता है लेकिन ये उसका फ़र्ज़ था ये कहकर उसे खुद पर गर्व करने से रोक देता है|
मैं ये कतई नहीं कहूँगी की मुझे हमेशा ही गर्व की अनुभूति हुई है क्योंकि सभी की तरह मेरी ज़िन्दगी में भी ऐसे कई पल आए हैं जब मुझे अपने स्त्री होने पर बेहद अफ़सोस हुआ था| लेकिन वास्तव में मुझे खुद पर गर्व है कि मैं एक स्त्री हूँ| ऐसे तमाम पल है जब मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ है| उनमें से कुछ महत्वपूर्ण पल आपके समक्ष रखते हुए मुझे बेहद ख़ुशी का अनुभव हो रहा है|
साइकिल रेस:-
जब मैं नौवीं कक्षा में थी| एक बार मेरी परीक्षा के परिणाम के बाद बात करते हुए मेरे ही पड़ोसी के लड़के ने कहा कि पढ़ाई करके अच्छे नंबर लाना कोई बड़ी बात नहीं होती| बिना तैयारी के कुछ जीत कर दिखाओ तो मानूँ| मैंने कहा क्या मतलब? उसने मुझसे ये कहा था कि साइकिल रेस करोगी देखते हैं कौन जीतेगा? उसने मेरा कोई जवाब ना पाकर हँसते हुए कहा कि साइकिल रेस में जीतना लड़कियों के बस की बात नहीं है| हमारा ग्रुप 7-8 बच्चों का था जिसमें मैं और दो लडकियाँ और थी यानी की ग्रुप में सिर्फ 3 लड़कियाँ थी और बाकी सभी लड़के थे|
जिसने मुझे चैलेंज किया था उसका नाम शौर्य था| मुझे मेरी सहेली ने मना किया और कहा तुम कहाँ इनके साथ रेस करोगी अच्छा थोड़ी लगेगा और फिर हार गयी तो ये हर टाइम तुम्हारा मजाक उड़ाया करेंगे| मैंने उसकी बात सुनी और साथ ही अपने दिल की भी| मैंने शौर्य से कहा मुझे मंजूर है| मैं ये रेस करुँगी| ये सुनते ही शौर्य मुस्कुराया और उसने कहा ओके तो फिर कल मॉर्निंग में मिलते हैं सब| वो वहाँ से चला गया और बाकी लड़के भी लेकिन मेरी सहेलियाँ नीलू और सोनू मेरे साथ ही खड़े थे| उन्होंने मुझे फिर रोंका लेकिन मुझे तो जैसे खुद को साबित करने की लगी थी| ये साइकिल रेस जीतकर मैं शायद पुरुषों के श्रेष्ठ होने का अभिमान चूर-चूर कर देना चाहती थी|
अगली सुबह रेस के लिए हम रोड के किनारे पर इकठ्ठा हुए थे| सच कहूँ तो मेरा मन बहुत घबराया हुआ था| बार-बार एक ही विचार मन में आ रहा था कि कहीं मैं हार गई तो……………लेकिन अगले ही पल दिल कहता तुझे जीतना ही होगा और मैंने फिर सिर्फ यही सुना था कि मुझे जीतना ही होगा| रेस शुरू हुई और हमें अपने स्कूल के गेट तक पहुँचना था| जो भी पहले वहाँ पहुँच गया वही विजेता होगा| हम कुल पाँच बच्चे थे, जिनमें से मैं अकेली लड़की थी| हमने रेस शुरू की और आप यकींन नहीं करेंगे लेकिन मैं उन चारों लड़कों से पीछे थी| एक पल के लिए मुझे ऐसा लगा कि मैं अब हार जाऊँगी लेकिन शौर्य की वो बात फिर मेरे कानों में गूँज रही थी,
“लड़कियाँ साइकिल रेस में लड़कों से तो नहीं जीत सकती|” इस वाक्य के याद आते ही मेरी साइकिल की रफ़्तार बढ़ चुकी थी|
मेरी साइकिल और मैं सिर्फ यही याद था और कोई जैसे फिर मुझे दिखा ही नहीं| मैं अपने आप से लड़ रही थी और मुझे ये भी पता नहीं लगा कि मैंने कब एक-एक कर उनमें से तीन लड़कों को पीछे छोड़ दिया था| थोड़ा आगे जाते ही मुझे शौर्य दिखाई दिया| हम दोनों एक साथ ही साइकिल चला रहे थे|
उसने कहा क्यों क्या लगता है जीत जाओगी? मैंने एक नज़र उसकी तरफ देखा और मुस्कुराई| उसके बाद फिर मैंने उसे भी नहीं देखा| स्कूल का गेट अब बिलकुल मेरे सामने ही था और मेरी नज़रें सिर्फ उस गेट पर| मैंने अपनी पूरी जान लगा दी अपनी साइकिल दौडाने में और मैं गेट पर पहुँच चुकी थी|मैंने साइकिल रोकी और पलट कर देखा तो शौर्य बिलकुल मेरे पीछे ही था और उसने मुँह लटकाए हुए कहा मान गए झाँसी की रानी तुम्हें| मैं जीत चुकी थी और एक-एक करके सभी लड़के वहाँ पहुँच चुके थे|
उस पल मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ या नहीं ये मैं नहीं जानती लेकिन खुद के लिए सम्मान जागा था कि मैं ऐसा कर पाई थी|
अपनी माँ को खोने के बाद अपनी बहनों के लिए माँ का फ़र्ज़ अदा करते हुए:-
जब मैंने अपनी माँ को खोया उस वक़्त मैं और मेरी बहनें काफी छोटी उम्र में थे| लेकिन मैंने अपनी बड़ी बहन की जिम्मेदारी को अच्छे से निभाया| मैंने उनकी हर छोटी-बड़ी जरुरत का हमेशा ख्याल रखा| मैंने अपनी पूरी कोशिश की थी कि उन्हें कभी माँ के नहीं होने का एहसास ना हो| ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से निकलती चली गई| हम बड़े हो गए और कुछ टाइम बाद जब मेरी शादी हुई तो मेरी बहन ने रोते हुए कहा “एक बार फिर से हम अकेले हो जायेंगे, क्योंकि हमारी माँ हमें फिर से छोड़ कर जा रही है|”
उसके ये शब्द सुनकर मेरा दिल भर आया और साथ ही माँ को याद करते हुए आँखें भी| मेरी बहने हमेशा से मुझे बहन और माँ दोनों का दर्ज़ा देती हैं| हर उस पल जब वो ये कहती हैं मुझे अच्छा लगता है| मैं फिर कहना चाहूँगी इस सम्मान को पाकर कभी गर्व हुआ या नहीं ये सोचा ही नहीं लेकिन मुझे एक सुख की अनुभूति होती है| किसी तरह की संतुष्टि कह सकते हैं कि मैं अपनी बहनों के लिए अनमोल हूँ|
अंत में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उपलक्ष में चंद पंक्तियाँ कहना चाहूँगी:-
“नारी स्वयं गर्व की परिभाषा है,
जो समझे उसका घर जन्नत है,
क्योंकि नेमतों की दाता है वो,
हर रूप में पुरुषों को संभालती है,
बेटी, पत्नी, माँ कभी दोस्त बनकर,
हर रूप में वो सृष्टि विधाता है|”
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