साल भर बाद एक बार फिर हम मार्च महीने में खड़े हैं। यूँ तो पिछले मार्च की यादें और उनकी परछाई से पूरी दुनिया उबर नहीं पायी है लेकिन फिर भी मानव मन और स्वभाव की जिजीविषा उसे हर मुश्किल से लड़ने की ताकत देती है। हम फिर से ज़िन्दगी को पटरी पर ला रहें हैं दुनिया फिर चलने दौड़ने भागने लगी है।
हर्ष उल्लास के उत्सवों का सिलसिला भी शुरू हो गया है। जहाँ बाज़ार की मांग के हिसाब से पारम्परिक त्योहारों को नया जामा पहनाया गया वही कई महत्वपूर्ण दिनों को त्यौहार सा जामा पहना कर बाज़ारीकरण में झोंक दिया गया।
इस दिन का इतिहास 100 वर्ष पुराना है जब 1908 में १५ हज़ार औरतों ने एक मार्च किया ,वोट के अधिकार के लिए, बेहतर वेतन और काम के घंटो में कटौती की मांग के साथ।
1909 में पहली बार इस दिन के एक संगठित स्वरूप को मनाया गया और वो तारिख थी २८ फरवरी।
1910 में कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं का दूसरा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। क्लारा ज़ेटकिन (जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए ‘महिला कार्यालय’ की नेता) नाम की एक महिला ने एक अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का प्रस्ताव दिया कि हर देश में हर साल एक ही दिन एक उत्सव होना चाहिए – एक महिला दिवस – अपनी मांगों के लिए प्रेस करने के लिए। 17 देशों की 100 से अधिक महिलाओं का सम्मेलन, में ज़ेटकिन के सुझाव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया और इस तरह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का परिणाम था।
इस निर्णय के बाद, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को 19 मार्च को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में पहली बार मनाया किया गया था। इन रैलियों में एक मिलियन से अधिक महिलाओं और पुरुषों ने भाग लिया, महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रचार करने, मतदान करने, प्रशिक्षित होने, सार्वजनिक पद संभालने और भेदभाव समाप्त करने जैसे कई मुद्दे उठाये गए।
1913-1914 में रुसी महिलाओं द्वारा मनाया गया यह दिन प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व संध्या पर आयोजित किया गया और चर्चा के बाद, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को 8 मार्च को वार्षिक रूप से चिह्नित करने के लिए सहमति व्यक्त की गई थी, यह दिन अब तक अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के लिए वैश्विक तारीख बना हुआ है।संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1975 में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था जिसकी परम्परा आज भी कायम है।
किन्तु सवाल यह है की जिस दिन की स्थापना 100 साल से अधिक पूर्व हुई और साल दर साल इस पर आवाज़ उठायी गयी और इस क्षेत्र में काम हुआ तो क्यों आज भी नारी के खिलाफ होने वाली हिंसा को हम रोक पाये नहीं पाए। और न ही उस पर हुए अत्याचार पर आज भी वो प्रतिक्रिया मिलती है जो किसी भी अन्य जघन्य अपराध को मिलती है। अक्सर देखा गया है कि नारी पर अत्याचार पर प्रतिक्रिया दोहरी होती है।
जहां एक तरफ उसे पीड़िता का दर्जा दिया जाता है वहीं दूसरी ओर उसे किसी न किसी अपराध का दोषी माना जाता है। नारी का ये दोष कुछ भी हो सकता है। अपनी सोच रखना बिना, गलती कर माफी मांगने से इनकार करना, अपनी जिंदगी के फैसले लेने का अधिकार मांगना, एक रिश्ते में बराबरी का हक होने की उम्मीद रखना हथवा एक परिवार में मात्र कर्ता बनकर ना रहने की बजाए मालिकाना हक रखने की ख्वाहिश रखना।
इनमें से कुछ भी या किसी को भी नारी की गलती मानी जा सकती है और ऐसे में अगर उससे संबंधित पुरुष अथवा नारी उसे प्रताड़ित करते है तो हमारे आस पास रहने वाला समाज उसे नजरअंदाज करता है।
नारी को प्रताड़ित करने के पीछे उसे कमतर समझने की सोच है जो बरसों से हमारे समाज की सोच बन चुकी है।
प्रकृति ने दोनों को अलग बनाया है। दोनों की ज़रूरत इस धरा पर जीवन चक्र को चलाने के लिए ज़रूरी है किन्तु जिस किरदार को सहज मान कर बराबर का सम्मान मिलना था वो मानव जाती के उत्थान के साथ कहीं गौण हो गया।
पुरुष और नारी को अगर पंचतत्व और धरा, मान ले तो एक पेड़ के लिए दोनों की महत्ता को कम या ज्यादा के मूल्यांकन पर नहीं रखा जा सकता। किन्तु हमारे समाज में सदियों से यही किया गया और नारी को धीरे-धीरे घर की चारदीवारी तक सिमित कर उसके अस्तित्व और उसके योगदान पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया।
भारतीय समाज पुरुषवादी रहा और पितृसत्ता की ज़ंजीरो ने औरत को बाँध दिया। जाने कब पुरुष प्रगति के पथ पर बहुत आगे निकल गया और नारी कहीं बहुत पीछे रह गयी।
नारी के विभिन्न रूपों को महिमामंडित तो ज़रूर किया गया, यहाँ तक की संस्कृति और धर्म के हवाले से उसे देवी का स्थान भी दे दिया गया किन्तु ज़मीनी तौर पे नारी की स्थिति पूरी दुनिया में कुछ एक सी ही रही। जिस पश्चिम को हम नारीवाद का गढ़ या जड़ मानते है वहां हारवर्ड और ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी में नारी को उच्च शिक्षा के लिए क्रमश 237 और 265 साल तक का इंतज़ार करना पड़ा।
इसलिए नारी की पिछड़ी स्तिथि के लिए हम किसी खास देश या वर्ग को दोषी नहीं मान सकते। इसके लिए अगर दोषी है तो हमारी पितृसत्ता की सोच जो नारी को कमतर मानती है। इस सोच का नतीजा है की नर नारी को बराबरी में देखने के ज़िक्र भर से वाद विवाद की स्तिथि आ जाती है।
पुरुष को नारी के रक्षक के रूप में देखा जाता है और इसके चलते नारी को दब कर रहना है, यह अनकहे नियम घर घर में लागू है। यह ज़ंज़ीर कुछ इस कदर बाँधी गयी है की औरत इसमें कसमसाती रहती है किन्तु बोल नहीं पाती। ऐसा नहीं है की पुरुषवादी सोच मात्र पुरुषो की है इस सोच को आगे ले चलने वाली तमाम पुरुषवादी महिलाएं भी है।
बदकिस्मती से हम एक ऐसे समाज में रह रहे है, जहाँ औरत को आज भी उसके कपड़ों, उसके घर आने जाने के समय और समाज के सांचे के अनुसार ही नापा जाता है। 2021 में भी दहेज से परेशान हो कर मासूम ज़िन्दगी आत्महत्या का रास्ता अपनाती है। एकल स्त्री पर आज भी ऊँगली उठती है और विवाह में होने वाली मानसिक और शरीरिक प्रताड़ना को लोग घर की बात मान कर नज़रअंदाज़ करते है।
नारी खिलाफ होने वाले हिंसा में उसकी गलती ढूँढना आम है। बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों तक में हमारा समाज लड़की के चरित्र को तौलने में पीछे नहीं रहता। ये कुछ वो बातें है जो एक छोटे से लेख में लिखी जा सकती है इसके अलावा ऐसा बहुत कुछ है जो होता है हर दिन जिस पर बात ज़रूरी है।
लेकिन क्या कहीं कुछ बदल रहा है?
बदला तो ज़रूर है। सती से लेकर बाल विवाह की कुप्रथा से लड़ते-लड़ते हम काफी आगे आ चुके है। बेटियों की शिक्षा का स्तर भी बढ़ा है। घर बाहर को कमर कस के सम्भालते हुए स्त्री अपनी पूरी जान से उस रेस में भाग रही है जहां की शुरुआत में ही उस बांध कर घर में बंद कर दिया गया था।
8 मार्च 2021 को ,एक त्रासदी से उबरते हुई दुनिया और भारत देश का हासिल अगर है तो वो – सोचने, समझने, बोलने वाली मुखर स्त्रियां!
ये बदलाव बहुत धीमी चाल से आ रहा है बिलकुल जैसे धरती सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी गति का अंदाज़ा नहीं देती किन्तु सूर्योदय से पता चलते है की एक चक्र पूर्ण हुआ। अभी सूर्योदय बहुत दूर है किन्तु लालिमा का एहसास होने लगा है। स्त्रियां एक दूसरे के लिए और स्वयं के लिए कुछ मुखर हुई है।
सवाल उठाने लगी है और उत्तर के लिए ज़िद्द भी करने लगी है। फ़र्ज़ के पाठ के साथ अधिकार का पन्ना भी अब बखूबी पढ़ती है। अपने अधिकारों को पाने के लिए न सिर्फ खड़ी होती है बल्कि उसके न मिलने तक शोर भी मचाती है।
ऐसा नहीं की इस बोलती, सोचती स्त्री को संघर्ष नहीं करना पड़ रहा, अपितु हर कदम पर उसे तंज़ कसे जाते है। नारीवादी का तमगा व्यंग में भिगो कर पहनाया जाता है। उसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ माना जाता है और साथ ही उसे पुरुषों के खिलाफ भी देखा जाता है। सोचने और समझने वाली बात यह है की पुरुषवादी सोच से मात्र नारी ही नहीं पुरुष भी त्रस्त हैं। पितृसत्ता जहां एक ओर नारी को अबला बना कर घर के चरदिवारी में कैद रखना चाहती है वही पुरुष को मानवीय संवेदनाओं से परे करने की दोषी है।
किन्तु आज उम्मीद की एक किरण दिखती है, जब स्त्री अपने अस्तित्व को रिश्तों के ताने बाने से परे भी देखने की कोशिश में है। शिक्षा को अपना संबल बना वो अपना बराबर का स्थान लेने का मन बना चुकी है। रूढ़िवादी सोच के खिलाफ आवाज़ भी उठाती है, अगर जरूरत पड़े तो सम्मान सहित एकल जीवन व्यतीत करने में घबराती नहीं है।
वो हर अधिकार से पहले “निर्णय के अधिकार” की मांग रखती है जहाँ उसके अपने जीवन के निर्णय वो बेझिझक ले सके, बिना किसी परिपाटी और आकांक्षाओं कि कसौटी के। नारीवादी सोच पुरुष और नारी को बराबरी में देखना चाहती है। किसी को भी, धर्म देश, जाति रंग के आधार पर उपेक्षित करने के खिलाफ है यह सोच।
नारीवादी नारी के नारीत्व या पुरुष के पुरुषत्व के खिलाफ नहीं किन्तु किसी को भी दूसरे से अधिक महत्वपूर्ण मानने के खिलाफ ज़रूर है।