मैं एक स्त्री हूँ , पिता-माता के लिए कन्या संतान!
एक कन्या के जन्म से ज्यादातर परिवार में दुख का बादल घिर आता है। कहने के लिए तो कन्या को लक्ष्मी माना जाता है, शक्ति-रूपिणी देवी के रूप में पूजा जाता है, पर वास्तविकता कुछ और होती है। कन्या को जन्म के साथ ही पराये धन की उपाधि दे दी जाती है।
सृष्टि की शुरुआत से ही स्त्री की जरूरत पुरुष के सहचरी के रूप में, संतान उत्पन्न करने के माध्यम के रूप में किया गया है। विश्व के प्राचीन सभ्यताओं में से एक जैसे की मिस्र की सभ्यता, जहाँ कन्या संतान ही साम्राज्य की उत्तराधिकारी बनती थी। वहाँ भी उसे अपनी पसंद के अनुसार विवाह करना, या राज्य संचालन करने का भी अधिकार नहीं था, बस नाम-मात्र का ही सम्मान! अन्य सभ्यताओं में समाज मूलरूप से पितृ-तांत्रिक ही था, नारी पुरुषों के अधिकार के दायरे में एक भोग्य वस्तु, एक पण्य द्रव्य से अधिक कुछ नहीं।
तभी तो युद्ध उपरांत विजयी राजा और उनके सैनिकों को अन्य वस्तुओं के साथ नारी पर भी यथेच्छाचार का अधिकार होता। कभी राजा भी राज्य को बचाने के लिए बेटी को, बहन को, विवाह के रूप में दान कर देते थे।
‘हेलेन ऑफ ट्रॉय’ की कहानी पर जहाँ होमर ने इलियास और ओडिसी जैसी काव्य गाथा रच डाली। नारी के सम्मान को बचाने के लिए स्पार्टा के कितने ही महान वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, ट्रॉय नगरी ध्वंस हो गयी, पर असल में अपनी छीनी हुई संपत्ति को वापस लाने का ही तो युद्ध था, नारी के सम्मान बचाने का नहीं।
मध्य-युगीन भारत में मुस्लिम आक्रमण के साथ नारी की स्थिति बदतर हो गई, पर्दा प्रथा का प्रचलन हो गया, नारी अब भी पुरुषों की संपत्ति और संतान उत्पादन का माध्यम ही बनी रही। नारी को पर पुरुष छू भी लेता तो अस्पृश्य वस्तु की तरह त्याग दिया जाता था। आधुनिक भारत में नारी काफी हद तक सशक्त बन चुकी है, शिक्षा और कार्यक्षेत्र दोनों क्षेत्रों में ही नारी उन्नति की पराकाष्ठा पर है!
गार्गी, मैत्रेयी जैसी ब्रह्मवादिनी, क्षणा, भानुमती, लीलावती जैसी विदुषी नारियाँ प्राचीन काल की थी!
आज के समाज में डा आनंदी बाई जोशी, कादम्बिनी गांगुली,रोकैया शाखावात होसेन , सावित्री बाई फूले आदि भी नारियाँ थीं जिन्होंने रूढ़िवादी समाज में रहते हुए भी अपने जीवन के पथ को प्रशस्त किया था!
पुरुष शासित समाज आज भी है, नारियों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में अत्याचार की कमी नहीं है। फिर भी आज की नारी काफी जागरुक बन गई है, अपने अधिकारों को समझने लगी है। मैं भी आज के युग की नारी हूँ, इसलिए मैं मातृत्व के सुख को श्रेष्ठ मानती हूँ, पुरुष के अधिकार में, सामर्थ्य में यह सुख नहीं है। जब मैंने अपनी कन्या संतान को जन्म दिया, वो मेरे लिए सुखद पल था और मेरे नारीत्व का प्रकृति दत्त पहचान भी था!